आकाश पर आकांक्षाओं के इंद्रधनुष
प्रवास गाथा
इंदिरा मित्तल
इतिहास साक्षी है कि त्रस्त मानव समूह या धन और सेना के बलबूते पर साहसी खोजी व साम्राज्य विस्तार के महत्वाकांक्षी गिरी, पर्वत और सागर तट लांघते रहे हैं।
‘लैंड ऑफ ऑपरच्यूनिटी’ अमेरिका में अपनी किस्मत आज़माने उमड़ी आती मानव लहर को मैनहैटन, न्यूयॉर्क के लिबर्टी आयलैंड पर स्टैच्यू ऑफ लिबर्टी एक हाथ में मशाल उठाए दिखती है। बुत की धानी पर अंकित कवियित्री ऐमा लैज़रस की कविता द न्यू कोलॉसस की कुछ पंक्तियां विश्वभर का आह्वान करती हैं:
अपने थके-हारे, निर्धन जन,
आज़ादी की सांस लेने को तड़पते, दबे-घुटे;
तुम्हारे तटों के बांध तोड़ते दीन-हीन, बेघर,
बदकिस्मती के झंझावात से जूझते
मानव समूह को मेरे पास भेजो।
सुनहरी आशाओं की ड्योढ़ी पर मैं आशादीप उठाए (खड़ी) हूं।
विदेश पलायन का मनोरथ मुद्रा अर्जन हो अथवा नए आयामों की खोज, जिस देश में लोगों को आज़ादी, न्याय और $खुशहाली मिले, वह त्रस्त जनों का लक्ष्यधाम होगा।
एक समय पंजाब से जवां मर्दों का विदेश पलायन इतना अधिक बढ़ गया था कि गांव के गांव खेतीबाड़ी के लिए मज़बूत हाथों, कन्धों के मोहताज हो गए थे। अरब देशों, कैनेडा, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया आदि में बीहड़ विस्तार लहलहाने गए मर्दों के परिवारों में केवल महिलाएं, वृद्ध और बच्चे रह गए थे। हरित और श्वेत क्रांति का भविष्य चिंताजनक बन गया था। तब औसत से अधिक मज़दूरी का लालच देकर ठेकेदार सुदूर प्रांतों से मज़दूरों की खेप की खेप पंजाब लाते जो फसल बोती, रखवाली करती, काटती और धान की रोपाई के बाद वापस ठेल दी जाती। यू.पी., बिहार के प्रवासियों और अन्य $खस्ताहाल प्रदेशों से फटेहालों के हुजूम रेलगाडिय़ों की छतों तक को पाटे पंजाब की ओर उमड़े आते बहुत बार देखे।
सियालदाह एक्सप्रेस से एक बार अम्बाला आते समय यही नज़ारा था। वातानुकूलित कक्ष में भी यात्रियों को घोर असुविधा हो रही थी क्योंकि डिब्बों की छत पर जमा भीड़ के कारण रास्तों में स्टेशनों पर शौचालय की टंकियों में पानी भरना असम्भव हो गया था। ट्रेन वैसे ही बहुत लेट चल रही थी। सुस्त चाल ट्रेन को रोक-रोककर मानव समूह नीचे उतारने की कोशिश में बहुत समय ज़ाया हो चुका था। खीझे, झल्लाए यात्रियों में पंजाब के कुछ ज़मींदार भी थे जिनका रोष कई गुना अधिक था— भज्जे चले आंदे ने जत्थे दे जत्थे खेतां विच रोज़गार वास्ते। औ तो चलो ठीक लेकिन फेर मुड़कर वापस नईं जाना चौहंदे। ऐत्थे ई वसी जांदे ने। जे डोमिसाइल स्टेटस मिल गया ते वोट पाणगे, साड्डी सरकार बणाणगे।
मुझसे बिना कहे रहा न गया था कि बाष्शाओं, तुहाडे लोकी अपणे कनेडा टुर गए ने ते ऐह लोकी अपणे कनेडा चले ने। मेरा तर्क सुनने वालों की रोषपूर्ण दृष्टि यदि मुझे खा सकती तो लील गयी होती।
विदेशों में चुनावों के दौरान इमिग्रेंट्स वोट बैंक प्रमुख भूमिका निभाहता है। रिसेशन से त्रस्त जनता लाख नारे लगाये कि $गैर$कानूनी तरीकों से घुस आये इमिग्रेंट देश की अर्थव्यवस्था पर बोझ हैं लेकिन राजनीतिक दल इस वोट बैंक की ताकत को पहचानते हैं। मेहनत मशक्कत से धरती से सोना उगलवाने वाली, औद्योगिक क्रांति लाने वाली पुरानी पीढिय़ों की संतान आरामपरस्त होती गई है। गोरी नस्ल की घटती जनसंख्या और वृद्धजनों की दीर्घायु के कारण अर्थव्यवस्था की धमनियों में नित नया $खून चाहिए। प्राकृतिक साधन संपन्न देशों को मानव संसाधन, यानी सुसंस्कृत, शिक्षित, स्वस्थ, सुयोग्य, कर्मठ इमिग्रेंट्स और उनकी संतति की सदा से आवश्यकता रही है।
कैलिफोर्निया जैसे कृषि प्रधान क्षेत्रों में खेतीबाड़ी इमिग्रेंट लेबर फोर्स के कन्धों पर चलती है। अस्पतालों, नर्सिंग होम्ज़, ओल्ड पीपल्ज़ होम्ज़, रेस्तरांज़, होटेल इंडस्ट्री, कंस्ट्रक्शन इंडस्ट्री, फैक्ट्रियों आदि में मशक्कत के सारे काम अधिकतर इमिग्रेंट्स करते हैं। विश्वविद्यालयों में, रिसर्च इंस्टिट्यूशंस में, मेडिकल फील्ड में बहुसंख्या प्रवासियों की ही है। मेधा व कला प्रशस्त इमिग्रेंट्स के लिए पृथक कैटेगरी है, जिस पर कोटा की बंदिश भी नहीं।
कई-कई भाड़ झोंकती आम इमिग्रेंट्स की पहली पीढ़ी सहर्ष ज़मीन बन जाती है, जिस पर उसकी संतान और आने वाली पीढिय़ां गर्व से माथा ऊंचा करके खड़ी हों और उच्च शिक्षा व लगन से सम्भावनाओं के आकाश पर आकांक्षाओं के इंद्रधनुष तानें।
हमारी क्लीनिंग लेडी ग्रेस पोलिश है। अपने जैसे अन्य इमिग्रेंट्स की तरह यहां मेहनत से कमाए पैसों से पोलैंड में अपने गांव में घर बनाया है, जिसमें वह ताला लगाकर आती है। पहले तो वह दृढ़ता से दावा करती थी कि उसे यहां नहीं बसना, पोलैंड लौट जायेगी। धीरे-धीरे उसके दावे में दम कम होता जा रहा है। यूरोप से आने वालों को यहां बसाने की कई योजनाएं हैं। ग्रेस कैथोलिक है।
अगले पखवाड़े में पढिय़े ग्रेस के जीवन संघर्ष की गाथा।